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क्या ‘का बा, का बा’? यूपी में ‘बाबा’! (व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)

कोई हमें बताएगा कि इन नेहा सिंह राठौड़ टाइप के लोगों की प्राब्लम क्या है? कल तक तो खुद ही हर किसी से यूपी में का बा, यूपी में का बा, पूछती फिर रही थीं। घूम-घूम कर पूछती फिर रही थीं। गा-गाकर पूछती फिर रही थीं। यूट्यूब और न जाने किस-किस ट्यूब से, लाखों लोगों को सुना-सुना के पूछती फिर रही थीं। और आज-कल से नहीं, पिछले कम-से-कम दो-तीन साल से बार-बार पूछ ही रही थीं–यूपी में का बा, यूपी में का बा! जो सब की आंखों के सामने था, जो सब जानते थे, उस सच से अनजान बनकर बार-बार पूछ रही थीं–यूपी में का बा! और अब जब उनकी का बा, का बा की रट से आजिज आकर यूपी की सरकार उन्हें बताने के लिए तैयार हो गयी है कि यूपी में का बा, तो मैडम इसकी शिकायतें गाने लग गयीं कि उन्हें गाने पर, पुलिस ने नोटिस क्यों दे दिया? सुना है कि अब तो उन्होंने इसकी शिकायत गाना और शुरू कर दिया है कि उनका गाना रुकवाने के लिए, उनके पति को नौकरी से ही निकलवा दिया गया। क्या यही डैमोक्रेसी है? क्या यही डैमोक्रेसी की मम्मी के लक्षण हैं, वगैरह! पर मैडम यह तो सरासर चीटिंग है। अब आप सवाल बदल रही हैं। अपना सवाल मत बदलिए। आपके ऑरीजिनल सवाल का जवाब आ गया है–यूपी में बाबा, और का बा!

अब रही बात यूपी में का बा के जवाब में बाबा बताने के पुलिसिया तरीके की, तो उसके लिए तो मैडम नेहा खुद ही जिम्मेदार हैं। आखिर, सोचने की बात है कि यूपी में बाबा को आए सात साल हो गए। सात साल में कम से कम सात सौ बार तो देश तो देश, विदेश तक अखबार-टीवी में बाबा, बाबा का डंका बजा ही होगा। कभी मजनूं स्कैड बनाए, तो बाबा का डंका। कभी सीएए वालों के घर कुर्क कराए, तो बाबा का डंका। कभी आपरेशन लंगड़ा चलवाए, तब बाबा का डंका। कभी हिरासत में कैदियों के वाहन पलटवाए, तब बाबा का डंका। कभी खुद अपने कलम से अपने और अपने कुनबे वालों के केस हटवाए, तब बाबा का डंका। गंगा मोक्षदायिनी से शववाहिनी करायी, तब बाबा का डंका। आक्सीजन के लिए कोरोना पीड़ित पेड़ों के नीचे पहुंचवाए, तब बाबा का डंका। अस्सी-बीस कराए, तब बाबा का डंका। कांवरियों पर पुलिसवालों से हैलीकोप्टर से फूल बरसवाए, चुपचाप किसी कोने में नमाज पढऩे वालों को पकडक़र मुकद्दमे चलवाए, तब बाबा का डंका। हाथरस के संस्कारी बलात्कारी बचाए, तब बाबा का डंका। बाकी सब के लिए बुलडोजर पठाए, तब बाबा का डंका। यानी डंका ही डंका, कोई मिस कैसे कर जाए। सब को दिखाई दे रहा था, यूपी में बाबा। बस नेहा मैडम को ही दिखाई नहीं दे रहा था, जो का बा, का बा की रट लगाए हुए थीं। खैर! अब तो उनकी भी समझ में आ ही गया कि यूपी में का बा, बाबा और क्या!

अब आप पूछेंगे कि इस सब में पुलिस कहां से आ गयी। तो भैया! इतने दिन में इतना तो साफ हो ही गया था कि नेहा जी डिफीकल्ट स्टूडेंट हैं। लर्निंग डिफीकल्टी। ऊपर से गाने-वाने का शौक और। यानी पढ़ाई-वढ़ाई में ध्यान ही नहीं। ऊपर से चलन भी शरीफ घरों की लड़कियों वाले नहीं। पर बाबाजी भी सिखाए बिना छोडऩे वालों में से थोड़े ही हैं। ऊपर से पुरानी चाल की ट्रेनिंग है। गुरुओं से कान तोड़ शिक्षा पाने की ट्रेनिंग। मराठियों की तर्ज पर, शिक्षा को सजाओं से सजाने वाले। लगा दिया डिफीकल्ट स्टूडेंट के लिए स्पेशल टीचर — दारोगा जी! देखा ना कैसे पहली ही क्लास में मैडम बाबा अपने बुलडोजर का स्टिअरिंग संभाल टाइप की बातें करने लगीं। यूपी में बाबा हैं, तब ही न मैडम स्टिअरिंग संभालने की डिमांड कर रही हैं। अलबत्ता मैडम को अब भी इसका पता नहीं चला है कि बाबा का बुलडोजर, ऑटोमैटिक है। न स्टिअरिंग का झंझट, न स्टिअरिंग संभालने वाले की किचकिच। तब भी पता नहीं क्यों कानपुर में दीक्षित परिवार को कुचला बुलडोजर ने और विरोधी इसमें भी झुट्ठे ही बाबा का नाम लगा रहे हैं। खैर! सब मिलाकर नेहा राठौड़ के लिए पुलिस के बुलावे का मामला, डिफीकल्ट से डिफीकल्ट लडक़ी पढ़ाने के बाबा के संकल्प का मामला है। इसमें विरोधी फालतू-फंड में ही डैमोक्रेसी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वगैरह का मामला खोज रहे हैं। यूपी में का बा के उनके सवाल का जवाब तो मिल भी गया है, अब बस जब बाबा, बाबा गाना सीख जाएंगी, पढ़ाई पूरी हो जाएगी और आराम से घर जाएंगी। हो सकता है, तब पति की नौकरी भी वापस लौट आए। पर तब तक क्लास चलेगी!

खैर, यूपी में बाबा का मतलब यह हर्गिज नहीं है कि यूपी में जो भी है, सिर्फ बाबा के होने से ही है। यूपी में अगर बाबा है, तो देश में फकीर है। यानी देखें तो यूपी में दोनों हैं, बाबा भी और बेशक फकीर भी। यही तो डबल इंजन का कमाल है। जैसे यूपी में हर का बा के जवाब में बाबा, वैसे ही देश में हर का बा के जवाब में है — फकीर बा। यूपी में पुलिस ने नेहा सिंह को यूपी में का बा पढ़ाने का जिम्मा संभाला, वैसे ही दिल्ली में फकीर साहब की पुलिस ने कांग्रेस के प्रवक्ता को हवाई जहाज से नीचे उतार लिया। और नीचे भी ऐसे उतारा कि राष्ट्रीय एकता की मिसाल कायम कर दी। मुंबई का मामला था। सीमा सुरक्षा बल ने दिल्ली में हवाई जहाज को घेर लिया। शाह साहब की दिल्ली पुलिस ने बंदे को जहाज ने नीचे उतारा। हेमंत बिश्वा शर्मा की असम पुलिस के सुपुर्द कर दिया। और इतना सब किसलिए? प्रधानमंत्री का पूरा नाम ठीक से याद कराने के लिए — नरेंद्र के आगे, गौतम दास नहीं, दामोदर दास!

अब प्लीज कोई यह मत कहना कि कोई गौतम दास कहे या दामोदर दास, फकीर साहब को क्यों फर्क पड़ना चाहिए? नहीं पड़ता है, फकीर साहब को बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता है। पर यह फकीर साहब की बात तो है ही नहीं। यह तो राष्ट्र का सवाल है। राष्ट्र के सम्मान का सवाल है। जो राष्ट्र विश्व गुरु के ट्राइल के तौर पर जी-20 की अध्यक्षता संभाल रहा है, उसके सर्वोच्च नेता का पूरा नाम कोई गलत ले और बाद में अपनी गलती पर हंसकर भी दिखाए, तो दुनिया क्या कहेगी? हमारी शिक्षा के बारे में, हमारी पढ़ाई के बारे में दुनिया क्या कहेगी? दावा विश्व गुरु होने का और खुद अपने यहां शिक्षा का ये हाल? फकीर साहब ने कहा कि बाकी सब मंजूर, पर पढ़ाई में ऐसी कोताही मंजूर नहीं। जेल में ले जाकर अगले की क्लास लगाओ, कम से कम मेरा नाम सही याद कराओ! पर अपने सुप्रीम होने के मुगालते में कोर्ट ने टांग अड़ा दी। बंदे की स्वतंत्रता को याद रखा, शिक्षा के मैटर को भुला दिया। खैर! कोई बात नहीं। खेड़ा की शिक्षा फिर सही। खेड़ा अनपढ़ ही रहे, तो भी यूपी में बाबा की तरह, नये इंडिया में का बा का जवाब तो फकीर बा ही रहेगा!

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