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वरिष्ठ पत्रकार जवाहर नागदेव की खरी़ खरी, न साहस रहा न संवेदनाएं, बचा है सिर्फ डर और स्वार्थ

बहुत पुरानी बात है। हम लोग चैथी या पांचवी में थे। मां ने कहा जाओ सब्जी मण्डी से सब्जी ले आओ। मैं घर से सायकिल से निकला। दूसरे दोस्त के घर गया। उसे साथ लेकर मण्डी की ओर चल पड़ा। वहां भिण्डी, करेला देखते, मोलभाव करते एकाएक नज़र सामने की लाईन में सायकल लेकर सब्जी दुकान से आलू लेते स्कूल के गुरूजी दिख गये। हाथ से सब्जी का थैला छूटते-छूटते बचा। एक और व्यक्ति वहां खड़ा था। हम दोनों थोड़ा सा आगे-पीछे होकर उसकी आड़ में गुरूजी की नज़र से बचने की कोशिश में जुट गये।

कभी दोस्तों के साथ पिक्चर गये तो भरपूर प्रयास रहता था कि कोई गुरूजी तो नहीं ही देखें, कोई पड़ोसी, कोई और पहचान वाला न मिल जाएं।

बड़े अपना फ़र्ज निभाते थे

दूसरी ओर जो बड़े होते थे। गुरूजी, पड़ोसी या पहचान वाले वे अगर देख लेते तो उनका उत्तरदायित्व बन जाता था कि बच्चों की पूछ परख करें। थोड़ा शकी निगाहों से देखते कि कहीं कोई बदमाशी तो नहीं कर रहा है।

मोहल्ले में या सड़क पर कोई किसी के साथ गलत करता या लड़कियों को छेड़ता, मस्ती करता या सिगरेट पीता तो उसे अधिकार से डपटते थे। यदि किसी ने कोई हुज्जत की या अपराध किया तो घर पर शिकायत पहुंचा दी जाती और सब मिलकर उसकी खबर लेते।
ये होती थी सामाजिक जिम्मेदारी। जिसे हर जगह निभाया जाता था। हर परिचित किसी रिश्ते से जुड़ा होता था और बिना कहे वो अपनी जवाबदारी और कत्र्तव्य निभाता था।

बेहद अमानवीय दिल्ली की घटना

अब जरा दिल्ली की पिछले दिनों घटी उस दुखद घटना पर गौर कीजिये जिसमें एक 16 साल की लड़की को उसके पूर्व ब्वायफ्रॅण्ड ने चाकू से गोद दिया। इससे भी मन नहीं भरा तो पत्थर उठाकर उसका सर कुचल दिया। बेहद दुखद घटना थी ये। पर इससे भी दुखद ये था कि वहां से आते-जाते कई लोगों ने इसे देखा और अपने-अपने रस्ते चलते बने।

एक व्यक्ति ने उसे  पकड़ने की कोशिश की तो उस लड़के ने उसका हाथ झटक दिया। और वह व्यक्ति दोबारा कुछ करने का साहस नहीं जुटा पाया। यदि वहां से गुजरने वाले दो-चार लोग भी साहस कर उस बचाने का प्रयास करने वाले व्यक्ति का साथ देते तो संभवतः उस कातिल लड़के पर काबू किया जा सकता था।

सहस पर भारी डर

मगर उस दिन ऐसा नही हुआ। लोगों में साहस भी नहीं था और अपने काम पर जाने की           जल्दी भी थी। लोग किसी न किसी इम्पाॅर्टेंन्ट काम से ही जा रहे होंगे जो उस लड़की की जान से भी ज्यादा वजन रखता होगा।

फिर डर के मारे मन में ये भी विचार आया होगा कि ‘अपने को क्या करना है, कहीं हमी पर न अटैक कर दे, अपन तो अपने काम पे चलो’। यानि कुल मिलाकर संवदेनाएं मर गयी हैं, साहस रहा नहीं और स्वार्थपरता भर गयी है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या इस तरह कोई किसी को सरेराह खुलेआम मार सकता था।

सुप्रीम कोर्ट का अच्छा निर्णय
काफी समय पूर्व ऐसा होता था कि अगर आपने सड़क पर पड़े किसी घायल की                मदद की तो पुलिस आपको ही गवाह बनाकर इतनी पूछताछ करती और चक्कर खिलवाती  थी कि आप फिर किसी की मदद करने से तौबा कर लेते थे।

जब ये देखा गया कि कोर्ट और पुलिस के चक्कर से बचने के लिये कोई किसी की मदद नहीं कर रहा जिससे कई जानों को जो बच सकती थीं बचाया नहीं जा सका तो इस पर गंभीर चिन्तन हुआ। आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश जारी किया कि मदद करने वाले को किसी भी तरह से कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये।

इस आदेश से माहौल थोड़ा बदला और लोगों के अंदर भय मे कमी आई। बावजूद इसके इस तरह की घटनाओं के समय लोगों की वो भागीदारी नहीं नजर आती जिसे संतोषजनक कहा जाए। बहुधा ऐसी घटनाओं में जिनमें खतरा हो लोगों में उदासीनता बनी रहती है। जो बेहद दुखद है।


जवाहर नागदेव, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, चिन्तक, विश्लेषक
मोबा. 9522170700

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